सोमवार, 22 जनवरी 2018

सांकल की बोली

दरवाज़े प्रैक्टिकल होतें हैं_
_और खिड़कियाँ भावुक,

_दरवाज़े सिर्फ समझते हैं
_सांकल की बोली
_पैरों की आहटें,

_खिड़कियां पहचानती हैं
_दबे पाँव पुरवाई का
_चुपके से अंदर आ जाना,
_सवेरे की किरणों का
_भीतर तक उतर जाना,

_परिंदों का राग,
_मौसमों का वैराग,
_बादल की आवारगी,
_बूंदो की सिसकियाँ,
_घटते बढ़ते चाँद की
_ लम्बी-छोटी रातें,
_चांदनी के सज़दे,
_और टूट जाना किसी तारे का,
_खिड़कियाँ सब जान जाती हैं;

_दरवाज़े होते हैं सख्त,
_मजबूत
_नींबू-मिर्ची से सजे धजे
_अक्खड़ किसी दरबान से,

_खिड़कियाँ होती है
_अल्हड़,
_नादान और सहज;
_उनपर नही लिखना पड़ता,
_*"स्वागतम्"!

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