*दर्द कागज़ पर,
*मेरा बिकता रहा,
*मैं बैचैन था,
*रातभर लिखता रहा..
*छू रहे थे सब,
*बुलंदियाँ आसमान की,
*मैं सितारों के बीच,
*चाँद की तरह छिपता रहा..
*दरख़्त होता तो,
*कब का टूट गया होता,
*मैं था नाज़ुक डाली,
*जो सबके आगे झुकता रहा..
*बदले यहाँ लोगों ने,
*रंग अपने-अपने ढंग से,
*रंग मेरा भी निखरा पर,
*मैं मेहँदी की तरह पिसता रहा..
*जिनको जल्दी थी,
*वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,
*मैं समन्दर से राज,
*गहराई के सीखता रहा...........!!!
बुधवार, 27 दिसंबर 2017
दर्द कागज़ पर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
संगदिल ज़माने को रिझाना ना आया
संगदिल ज़माने को रिझाना ना आया सब कुछ सीखा बस भजन गाना ना आया कहा था किसी ने के सीख लो शायरी ये रास्ता माक़ूल हे मोहब्बत पाने को फिर हमन...
-
न चादर बड़ी कीजिये.... न ख्वाहिशें दफन कीजिये... चार दिन की ज़िन्दगी है बस चैन से बसर कीजिये... न परेशान किसी को कीजिये न हैरान किसी को ...
-
तेरा चेहरा , तेरी बातें , तेरी यादें ... इतनी दौलत पहले कहाँ थी पास मेरे !! ये लफ़्ज़ क्यों शहद हुए जा रहे है कौन छू गया हमारी ...
-
दरअसल तुम सिर्फ वो जानते हो...जो मेरे लफ़्ज़ कहते हैं. मेरी हिचक , अफसोस और तलब तो बेजुबान हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें