बुधवार, 27 दिसंबर 2017

दर्द कागज़ पर

*दर्द कागज़ पर,
          *मेरा बिकता रहा,
*मैं बैचैन था,
          *रातभर लिखता रहा..
*छू रहे थे सब,
          *बुलंदियाँ आसमान की,
*मैं सितारों के बीच,
          *चाँद की तरह छिपता रहा..
*दरख़्त होता तो,
          *कब का टूट गया होता,
*मैं था नाज़ुक डाली,
          *जो सबके आगे झुकता रहा..
*बदले यहाँ लोगों ने,
         *रंग अपने-अपने ढंग से,
*रंग मेरा भी निखरा पर,
         *मैं मेहँदी की तरह पिसता रहा..
*जिनको जल्दी थी,
         *वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,
*मैं समन्दर से राज,
         *गहराई के सीखता रहा...........!!!

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