गुरुवार, 23 नवंबर 2017

शमशान की राख

शमशान की राख देख कर मन में
एक ख्याल आया

सिर्फ राख होने के लिए इंसान जिंदगी भर
दूसरों से कितना जलता है

मैंने भी अपनी ज़िन्दगी का बहुत दूर तक पीछा किया,
ये अलग बात हैं कि वो खुद किसी की तलाश में थी।

होता अगर मुमकिन, तुझे साँस बना कर रखते सीने में, 
तू रुक जाये तो मैं नही, मैं मर जाऊँ तो तू नही

ईश्क की लौ है दिल पे लगाते  हैं
वो फिर से बुझाते हैं हम फिर से जलाते हैं...

"मरीज-ए-मोहब्बत हूं,
इक तेरा दीदार काफी है,"

"हर एक दवा से बेहतर,
निगाहे-ए-यार काफी है"

सुनहरा दिन यूँ  इतरा के
               संवर के यार सा निकला
महकती सर्द फिजाओं संग
                मेरे दिलदार सा निकला...!!

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